सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

कथा-गाथा : शिवशंकर मिश्र

कथा- गाथा : शिवशंकर मिश्र Posted by अरुण देव on 4.4.11

समालोचन: कथा-गाथा : शिवशंकर मिश्र 

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Arun Dev says:--  शिवशंकर मिश्र पिछले कई दशकों से कहानियाँ लिख रहे हैं. जिस तरह कि वह कहानियाँ लिखते हैं उसके लिए उन्हें लम्बे अंतराल की दरकार होती है. 52 की उम्र में उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हो रहा है जिसमें कुल जमा 6 कहानियाँ हैं. इसके अलावा बमुश्किल उनके पास प्रकाशित –अप्रकाशित दो – चार और कहानियाँ होंगी. ज़ाहिर है शिवशंकर तात्कालिकता के मोह से बच कर सृजनात्मक विवशता से कहानियाँ लिख रहे हैं.                                                              
4/05/2011


 इस कहानी पर रिजवानुल हक की टिप्पणी ई -मेल से मिली:  "शिव शंकर मिश्र की कहानी अंतिम उच्चारण पढ़ी, बहुत दिलचस्प है, इसमें एक गूंगे बच्चे बई के ज़रिए गांव की जि़न्दगी के तमाम उतार चढ़ाव, तमाम मासूमियत और क्रूरता एक ही कहानी में सिमट आए हैं। ज...ाति व्यवस्था को तो इस कहानी में उघेड़ कर रख दिया गया है, ब्रहमनों के ज़रिए अपने ही वर्ग के एक व्यक्ति को कर्मकांडों के जंजाल में पीस देना कमाल की बात है। लेकिन इस कहानी का सबसे अच्छा हिस्सा मुझे बई का सपना वाला हिस्सा लगा कमाल है।"                                                         
 5/05/2011



Akhtar Khan Akela says:-
    jnaab hm to itne bhtrin lekhn se yun hi itne dinon se vnchit the ab roz laabh liya krenge . akhtar khan akela kota rajsthan                                                                                               5/05/2011 


अपर्णा मनोज Says:- निर्मल हँसी अब नहीं हँसता. उच्चारण की विफल चेष्टा और सफल संकेत नहीं करता. किसी आदमी को देख कर झट से भाग जाता है और कोठरी में छिप जाता है. ...शरीर में सूजन बढ़ गयी है. लोगों का विचार है कि अब वह सुधर गया है.और न जाने कितने बई.. सुधार है पर उद्धार नहीं.. marmik kahani post ki hai aapne ..Mishr ji aur aapko badhai! 
6/05/2011 


रिजवानुल हक Says:-  शिव शंकर मिश्र की कहानी अंतिम उच्चारण पढ़ी, बहुत दिलचस्प है, इसमें एक गूंगे बच्चे बई के ज़रिए गांव की जि़न्दगी के तमाम उतार चढ़ाव, तमाम मासूमियत और क्रूरता एक ही कहानी में सिमट आए हैं। जाति व्यवस्था को तो इस कहानी में उघेड़ कर रख दिया गया है, ब्रहमनों के ज़रिए अपने ही वर्ग के एक व्यक्ति को कर्मकांडों के जंजाल में पीस देना कमाल की बात है। लेकिन इस कहानी का सबसे अच्छा हिस्सा मुझे बई का सपना वाला हिस्सा लगा कमाल है। 

                   7/05/2011



Aparna Manoj Bhatnagar says:- अरुण, मिश्रा जी को कहानी के लिए ख़ास बधाई प्रेषित कीजियेगा. बई तो एकदम छा गया.. इस पात्र से गंगानगर की एक पगली याद आ गई. उम्र १६ से अधिक नहीं थी.. उसे देखकर ममता भी आती और दुःख भी होता. न जाने किसकी बच्ची थी.. अकेली छोड़ डी गई. वह .. यूँ ही मारी-मारी फिरती. लड़के उसे छेड़ जाते. बच्चे मुंह बनाते. बूढ़े गौरवर्णा को राह रुक तक लेते. औरतें जुगुप्सा से थूकतीं. हमारा युवा मन उसके दुःख से आहत रहता. फिर एक दिन हम उसे अपने घर ले आये. छोटी उम्र थी(शायद सोलह या सत्रह )तो मन भी वैसा ही था. माँ ने खासकर बहुत डांटा पर हमारे पापा .. बहुत प्यारे इंसान हैं.. उन्होंने हमें support किया. दो दिन बाद वह न जाने कहाँ चली गई चुपके से. फिर डी.ए.वी. स्कूल के पास जहां उसे पहली बार देखा देखा था.. वहाँ भी न मिली. करीब साल गुज़र गया.. एक दिन अचानक गुरूद्वारे के पास उसे देखा.. वही जीर्ण क्षीर्ण अवस्था और गोद में बच्चा..उस समय हमने कैसा महसूस किया नहीं बता सकते....पर वह गौरवर्णा अभी भी मन से गई नहीं... उसके साथ की और कई अनुभूतियाँ हैं.. बच्चे के साथ की.. उस पगली की ममता की, और लोगों की उपेक्षा की..लेकिन उसमें स्थिरता आने लगी थी. उतनी पागल वह नहीं रही थी... हम उसके पास बराबर जाते. गुरुद्वारा ही उसका ठिकाना हो गया था.
                                                                                             8/05/2011

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