शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

गौरव मिश्र के हाइकू

सुमन पांखुरी

काँटे ही काँटे
उगे हैं जमी पर,
सम्हल कर ही चलना
चुभें ना कहीं पर।

अजब लीला तेरी
ऐ कुदरत है देखी
कि काँटे चुभे हैं
सुमन-पाँखुरी पर।

साँसों का कोई
ठिकाना नही है,
बातों के चर्चे
चले हैं सदी भर।

जिधर देखिये
बस तुमुल ही तुमुल है
कि बजती नहीं
रागिनी बाँसुरी पर।

काँटे ही काँटे
उगे हैं जमी पर,
सम्हल कर ही चलना
चुभें ना कहीं पर।





 दंड-ए-ठंड

भीगी छत पर ओस की 
जो नमी दिख रही थी,   
उन्हें अब कबूतर चुग रहे हैं। 
कुछ देर पहले 
जो धूप कोहरे ने ढकी थी,
अचानक वो  धीरे-धीरे 
 खिल उठी है
 फिर भी ओस कणों की
 सफेदी झर रही है।
आकाश की नीली दरी भी 
नहीं दिख रही है।
 वनस्पतियों पर चमकते 
ओसकण के मोती
बता रहे हैं कि 
हम रात में 
कितना बरसे हैं।
ठंड से हो रही हैं
जाने कितनी मौतें रोज          
खबर मिलती है तब 
जब मर जाते हैं ठंड से लोग...।

                               -गौरव मिश्र
जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित

त्रिपाठी भास्कराचार्य के संस्कृत गीत



सितवसन मितहसन मधुमितरसनवति
विधिरमणि तव न भव उपमितिमनुभवति
निगम -तिलकितवपुरुषशि तव दिवि लसति
यदुपनतदृशी विनतजगदधिचिति वसति
वटुवरटकुलमपि च वलदपचिति भवति
विधिरमणि तव न भव उपमितिमनुभवति ॥२॥

करकलित जपवलित मणिगुण उरु चलति
स हि सततमपि जगति शुभगतिमनुफलति
नवल मतिझरमिह तरलयति यतिमवति
विधिरमणि तव न भव उपमितिमनुभवति ॥३॥

तव ललितरव-तत कुकुभ परिमिलदुरसि
तरति सुतरतिनुलहरिरिव हिमसरसि
विबुधजनकृतसुकृतिरिहजनमभिभवति
विधिरमणि तव न भव उपमितिमनुभवति ॥४॥
त्रिपाठी भास्कराचार्य

कौशलेन्द्र के नवगीत

 माँ
चूल्हे की जलती रोटी सी
तेज आँच में जलती माँ।
भीतर-भीतर बलके फिर भी
बाहर नहीं उबलती माँ ,
रेशे-रेशे धागे बुनती,
नई रुई सी खुद को धुनती
नववीणा की तनी ताँत-सी
घर-आँगन में चलती माँ।


सावन के मेघ जल भरे
सावन के मेघ जल भरे
भीगी पलकों पर उतरे
धान पान तिथियाँ त्योहार की
बेटी ससुराल से पुकारती
फसलों पर ऋण की हरियाली
हँसी झरे होठों से उधार की
ऊपर से आँगन के नखरे
बिजुरी सी चमकें चिन्ताएँ
अँधियारे चलते दायें-बाँये
ऐसे में राह नहीं सूझे
बिजुरी की कौंध आजमायें
पाँवों के चिह्न कहाँ उभरे,
उफनाये ताल नदी नाले
आँगन में ओरी पर नाले
फुफकारें हर कोने से
विपदाओं के विषधर काले
मुरझाये जूड़े के मोंगरे
सावन के मेघ जल भरे।
जनसन्देश में प्रकाशित 
2012

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